Santh Kabir Das Dohe – Part 4

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ॥
 

 

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।

कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ॥
 

 

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।

जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह ॥


 

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥
 

 

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये । 

मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए ॥
 
 

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